गढ़ गुजरात से एक गीत हवा के पंख लगाकर उड़ता है। वह गीत भारतवर्ष के कोने-कोने
तक पहुँचता है। विदेशों में बसे अप्रवासी भारतीयों के घरों तक जाता है। उसके
माध्यम से प्रार्थनाएँ ऊपर उठती हैं। लोगों के मन भर वजन वाले मन हल्के हो
जाते हैं। एक निर्मलता घर-आँगन और चौपाल तक बगर जाती है। जीवन अपनी आदिम लय के
साथ मिला-भेटी करता है। मिट्टी की गंध और वाणी की सुवास मिलकर वंदना के स्वरों
में आदिशक्ति की महिमा गाती है। लोक-जीवन अपनी परंपरा में और सुद़ृढ़ होता है।
वह निखरता भी है। नया कुछ जोड़ता भी है। प्रार्थनाओं में मनुष्य को खड़ा कर देवी
को देवत्व भी देता है और अपनी लघुता में विराट भी बनता है। गीत शरीर को नृत्य
और आराधन की मुद्रा में और भावना को कलात्मक रूप में प्रस्तुत कर देता है। गीत
है -
पंखिड़ा रे उड़ी न जाजो पावागढ़ रे।
म्हारी माताजी ने कयजो, गरबो घूमे रे।
पंखिड़ ओ... पंखिड़ा।
ऐसे एक-दो नहीं, कई गीत हैं, जो नवरात्रि में गरबा करते हुए गाए जाते हैं।
मेरा मन इन गीतों को और गरबा मंडली की तन्मयता को देखकर हजारों सालों की परिधि
को पार करता हुआ उड़ा चला जाता है। उड़ते-उड़ते वहाँ पहुँचता है जहाँ माँ दुर्गा
अपने परिवार के सदस्यों के साथ सौम्य-शांत मुद्रा में है। कालभैरव पास में
बैठे हैं। डाकिनी-शाकिनी, थोड़ी दूर पर अपने कर्म में लीन हैं। दूर क्षितिज तक
शांति लहरा रही है। माँ दुर्गा की आँखों में लाल डोरे उभरते हैं। फिर लुप्त हो
जाते हैं। उनकी मुद्रा धीरे-धीरे चिंतन की रेखाओं से आक्रांत हो उठती है। एक
बवंडर-सा निर्धूम आकाश में उठता है। चारों ओर से कोलाहल का पारावार उमड़ता है।
लोग जतर-कतर भागते हुए बदहवाश हैं। सब कहीं शोर है। खून के छींटे आकाश के
शून्य में उछलते हैं। माँ सतर्क हो जाती है। शुंभ-निशुंभ मार-काट मचा रहे हैं।
वे लाशों पर थिरक-थिरक नाच रहे हैं। माँ अपनी संतान की शुंभ-निशुंभ द्वारा की
गई यह दशा नहीं देख सकती है। वह अपने संगी साथियों के साथ आगे बढ़ती है। सामने
शुंभ-निशुंभ हैं। माँ की आँखें आग उगल रही हैं। भीषण संग्राम होता है।
वार-पर-वार होते हैं। माँ देखते-देखते शुंभ-निशुंभ को विदार देती है। संग्राम
का अंत होता है।
और फिर क्या देखता हूँ कि शुंभ-निशुंभ जैसे आततायियों के नाश पर चारों ओर हर्ष
छा जाता है। हर्षातिरेक पाँवों में नृत्य बनकर; अंग-अंग का अभिनय-विलास बनकर
फूट पड़ता है। माँ दुर्गा के साथ उनके तमाम संगी साथी नाच उठते हैं। यह नाच
अद्भुत है। माँ नाच रही है। भैरव नाच रहा है। शृंगी नाच रहा है। भृंगी नाच रहा
है। डाकिनी-शाकिनी सब नाच रहे हैं। तालियाँ बजा-बजाकर नाच रहे हैं। गोलाकार
नाच रहे हैं। मंडलाकार नृत्य हो रहा है। तालियों की ताल पर विभिन्न मुद्राओं
में नाचकर खुशी का महोत्सव मनाया जा रहा है। पत्ता-पत्ता नाच रहा है। चंद्रमा
की झर-झर चाँदनी भी धरती-आकाश के बीच नाच रही है। दिशाएँ मगन हैं। पर्वत-उपवन
पर सौंदर्य की फुहारें पड़ रही हैं। नदियों की रजत धार में धँसकर तारे नाच रहे
हैं। चराचर नाच रहा है। जड़-चेतन सब माँ दुर्गा के साथ नृत्यमय हो उठते हैं।
पूरी रात नृत्य चलता है। सुबह नए जीवन की शुरुआत होती है।
माँ भगवती की आराधना-श्रद्धा के फलस्वरूप लोक ने यह नृत्य अपने जीवन में उतार
लिया है। लोक ने उसे परंपरा बना लिया है। वह उस परंपरा का नवीनीकरण करते हुए
इस नृत्य में नया-नया जोड़ता चलता है। कुआर सुदी पड़वा से लेकर नवमी तक चलने
वाला नवरात्रि उत्सव का यह नृत्य प्रमुख अंग बन गया है। लोक सारी दीवारों को
तोड़ता है। लोक ने समाजहित में यदि दीवारें बनाई भी हैं, तो व्यापक
जीवन-संदर्भों और लोकहित में उन दीवारों को भावों की नरम धारा से तोड़ा भी है।
असली जोड़ने का काम लोक ही करता है। लोकगीत करता है। लोकनृत्य करता है। इसका
प्रमाण है गरबा नृत्य।
एक सूत्र और समझ में आता है। श्रीमद्भागवत में शरद पूर्णिमा का महारस होता है।
वह रास परंपरा का बीज रूप है। ब्रह्म के चारों ओर जीवन की मंडलाकार स्थिति से
अनेक आध्यात्मिक अर्थ के सूत्र खुलते हैं। हरिवंश पुराण के विष्णु पर्व में
उल्लेख है - रास क्रीड़ा में सारी गोपियाँ मंडलाकार खड़ी हो जाती हैं। प्रत्येक
गोपी के बीच में श्रीकृष्ण खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार कृष्ण एक से अनेक होकर
प्रत्येक गोपी के साथ युगल जोड़ी बनाते हैं। उस समय किया गया यह नृत्य महारास
है।
तास्तु पङ्कीकृताः सर्वा रमयंति मनोरम्।
गायन्त्यः कृष्णचरितं द्वंद्वशो गोपकंयकाः।।
शारदीय रातों में गोपियों के मंडल में स्थित कृष्ण रास क्रीड़ा में आनंदमग्न हो
जाते हैं। गोपियाँ और कृष्ण का प्रेम मिलकर रसायण बन जाता है। सारे रस का
केंद्र कृष्ण हो जाते हैं। उस रसानंदी अवस्था में गोपी-कृष्ण एक हो जाते हैं।
जीव-ब्रह्म एक हो जाते हैं। कृष्ण 'रसो वै सः'' हो जाते हैं।
तब से लेकर आज तक यह रास चल रहा है। जब तक जीव और ब्रह्म की स्थिति द्वैत ही
रहेगी, यह रास अद्वैत के लिए होता रहेगा। रात-बिरात कृष्ण की मुरली बजती है।
कोई टेरता है। चाँदनी झरती है। कुंजों में गमक सुनाई देती है। कोई पागल-सी
दौड़ी-दौड़ी उधर जा रही है, जिधर से हरे बाँस की बासुरी की टेर आ रही है। उस टेर
में विषाद घुल रहा है। मुस्कान नहा रही है। लज्जा के हाथों में मेंहदी रच गई
है। पाँव इच्छा बन गए हैं। आँखें, चक्षु बन गई हैं। कान केवल शब्द सुन रहे
हैं। यमुना की भूमि पदचाप से रोमिल हो उठी है। कोई नहीं गा रहा है। कोई नहीं
सुन रहा है। कोई नहीं किसी को देख रहा है। सबकुछ एकमेक हो रहा है। शब्द,
स्पर्श, रूप, रस, गंध सब रस हो गए हैं। कृष्ण-केंद्रित हो गए हैं। रास, रस बन
गया है। रस, रास में रूपायित हो रहा है।
आगे देखता हूँ कि पूरा गुजरात अंबाजी की आराधना में नृत्यमय हो उठा है। देवी
की आराधना मन के उल्लास का अतिरेक बनकर गोलाकार नृत्य में अभिव्यक्त हो रही
है। एक चौक है। प्रकाश के छोटे बल्ब जुगनू की तरह दिपदिपा रहे हैं। चौक में
बीच में घट रखा हुआ है। माटी के उस घट में कई छिद्र हैं। घट के अंदर दीया जल
रहा है। घट में दीपक हृदय में चेतना की तरह आलोकित है। घट के छिद्रों से
प्रकाश-किरणें बारह निकलकर धरती और शून्य के वातावरण को आलोक से अभिषिक्त कर
रही हैं। और देखता हूँ कि सुहागिन स्त्रियाँ और कन्याएँ उस घट के आस-पास
गोलाकार घूम रही हैं। घूम रही हैं। झूम रही हैं। तालियों की ताल पर पाँव की
ठुमक और पूरे शरीर की गमक उन्हें सजीव नृत्य प्रतिमा बना रही हैं। लगता है
शुंभ-निशुंभ को मारने की खुशी में कई-कई दुर्गाएँ नाच रही हैं। सीधे पल्ले की
साड़ी में नृत्य, वेष और माथे की बिंदी में नृत्य-श्रृंगार दमक रहा है। तालियों
की ताल, उँगलियों की चुटकी, बाँहों के उठने-गिरने, देह का कभी धनुषाकार और कभी
मथानी डूबी रई के समान घुम्मरदार होने और नदी की भँवर की तरह अपनी ही जगह
घूमते हुए भी निरंतर आगे गतिमान होने में नृत्य संपूर्ण हो रहा है। उस नृत्य
में आराधना देह-राग के माध्यम से अभिव्यंजित हो रही है। स्वरों में ध्वनित हो
रही है। अंतरिक्ष की नक्षत्रावली धरती पर उतर आई है।
मैं पाता हूँ कि एक परंपरा निर्मल सरिता की तरह स्वयं में टिमटिमाते दीयों की
पुलकावली लिए बह रही है। अब उन नृत्यमय शुलभाओं के हाथों में दीये आ गए हैं।
हाथों में दीये लेकर वे ललनाएँ और बालिकाएँ अपने पूरे व्यक्तित्व को वंदना की
प्रतिमा बनाए दे रही हैं। लगता है नृत्य-निमग्न पूरी देह-यष्टि आरती बन गई है।
हथेली का दीपक आरती का दीया बन गया है। ऐसा लग रहा है कई-कई आरती के थाल
मंडलाकार घूमते हुए शक्ति की आराधना कर रहे हैं। आस्था की अगरबत्ती महक-महक
जलती है। आकारमय दिखते हुए भी निरंजन आरती हो रही है।
देखते-देखते मेरी आँखों के सामने कपासवर्णी सौराष्ट्र उतर आता है। हाथों में
डंडे और पाँवों में बिजली की गति के साथ किशोर-किशोरियों तथा युवक-युवतियों का
समूह अपनी परंपरा के नए जल में स्नान करता-सा प्रतीत होता है। वह निखार। वह
दीप्ति। बस देखते ही बनती है। यह सब आस्था की प्रतीति और मन के जुड़ाव के बिना
नहीं आ सकती। सांसरिक द्वारा पूजा तो ऐसी ही उत्सवप्रियता के बीच में संपन्न
होती है। इस देश ने तो ईश्वर आराधना-पूजा-अर्चना-वंदना के साथ नृत्य को जोड़कर
रखा है। यानी हृदय में पलती आस्था जब तक अंग-अंग की नृत्य-लोच में अभिव्यंजित
न हो; मंदिर का पूजा अनुष्ठान पूरा नहीं होता। भारतीय मंदिरों के प्रांगणों
में नृत्य की परंपरा के माध्यम से मंदिरों में बैठे देव की पूजा ही संपन्न
होती है। यह डांडिया रास तो कृष्ण के रास और नवदुर्गा के गरबा दोनों की
भंगिमाएँ अपने में सहज रूप से धारण किए हैं। दोनों नृत्यों के रस को डंडों की
ठुनक और शरीर की लोच में छलकाता है। यह रस पहले मन को भरता है। फिर अपने
आधिक्य से नृत्योत्सव को पूर्णता देता है। यह शक्ति की कोमल आराधना है।
रससिक्त वंदन है। उल्लासमय पूजन है और कहीं अपने श्याम साँवरे तथा उनके हाथों
में हाथ डालकर नाचती हुई राधिकाजी की महनीय स्मृति का पूरा होता पुनश्चरण है।
डांडिया रास समाप्त होता है। मैं अपने में वापस लौटता हूँ। सामने देखता हूँ कि
मेरा बचपन खड़ा है। वह मुझे उँगली पकड़कर वहाँ ले जाता है, जहाँ मेरे गाँव की
गलियों में कुँआरी लड़कियाँ घर की चौगान में गड़ब्या को रखकर उसके आस-पास
गोल-गोल नाच रही हैं। यह निमाड़ क्षेत्र से सटे भुवाणा क्षेत्र का गाँव है।
भुवाणा क्षेत्र निमाड़ और बुंदेलखंड के बीच का क्षेत्र है। वे लड़कियाँ गड़ब्या
को सिर पर रखकर घर-घर अनाज माँगने जा रही हैं। अब उन्होंने उस गड़ब्या को गली
के चौक में रख दिया है। वे ताली बजा-बजाकर नाच रही हैं। उन्होंने कोई नए कपड़े
नहीं पहने हैं। कोई श्रृंगार नहीं किया है। वे सहज हैं। सहज नाच रही हैं। सहज
गा रही हैं।
भाई कुम्हार्या रे, म्हारो गड़ब्यो संभाळ,
म्हारा गड़ब्या खऽ, रूड़ो दिवलो पूरा ऽऽ जे।
यह गड़ब्या माटी का छोटा घड़ा है। उसमें चारों ओर छेद कर दिए हैं। उसमें माटी का
दीया जल रहा है। छिद्रों में प्रकाश फैल रहा है, जैसे बादल खंड के द्वारा
सूर्य को ढक लेने पर किरणें उसके चारों ओर से और कुछ किरणें उसे फोड़कर निकल
रही हों। उन्होंने गीत के अनुसार कुम्हार से घड़ा और दीपक, तेली से तेल,
पिंजारे से रुई लेकर गड़ब्या उत्सव को पूर्ण बनाया है। यह उत्सव दशहरा से लेकर
शरद पूर्णिमा तक पाँच दिन चलता रहता है। पूरे गाँव की सहभागिता घट, दीपक, रुई
तेल और अनाज के द्वारा हो रही है। शरद पूर्णिमा के दिन पाँच दिन में प्राप्त
अनाज का भोजन बन रहा है। सारी लड़कियाँ भोजन कर रही हैं। गड़ब्या को नदी में
सिरा दिया जाता है। उत्सव पूरा होता है। सूनी आँखें नव-जीवन के सपने लेकर घर
लौटती हैं।
पशुपालन और ग्राम्य संस्कृति का यह उत्सव लोक ने अपनी परंपरा में स्वीकार लिया
है। ग्राम्य संस्कृति की सोल्लास परिणति कभी गरबा में, कभी डांडिया रास में और
कभी गड़ब्या में होती दिखती है। आज रास और गरबा केवल गुजरात के नहीं रहे। वे
पूरे गुजरात, मालवा, राजस्थान, पश्चिमी-उत्तर-महाराष्ट्र, निमाड़ और बुंदेलखंड
के हो गए हैं। दुर्गा-पूजा का ये नृत्य महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन गए हैं। इनके
विस्तार के लिए पर्चें नहीं बाँटने पड़ते। डोंडी नहीं पीटनी पड़ती। विज्ञापन
नहीं छपवाने पड़ते। दूरदर्शन पर प्रचार नहीं करना पड़ता।
यह जीवन का सहज स्वीकार किया जाने वाला अनुष्ठान है। एकता नारों से नहीं आती।
राजनीति से तो वह कभी नहीं आती। एकता आती है मन-मन की सहज स्वीकृति से। अपनी
परंपरा को नित-नया बनाकर उसे मनुष्य के उल्लास में जोड़कर चलने से। गरबानृत्य
और लोकगीतों में मानवता को जोड़ने और पुरानी धरती पर नई फसल पैदा करने का पावन
कार्य किया है। गीत के स्वर फिर उठने लगे हैं। माँ दुर्गा की प्रतिमा मन-मन के
आकाश में उभरने लगी हैं। मातेश्वरी को प्रणाम। माँ जगदंबा को प्रणाम। ओ माँ!
इन्हीं नृत्यों में हम जीवन को पुष्प-सा अर्पित कर रहे हैं। जीवन नृत्य के
माध्यम से उत्सव बन जाए। माँ! यह धरती हमारे पुण्यों के संचित फल से उत्सव में
बन जाए। यह शरद की चाँदनी तुम्हारी ही आभा के प्रकाश का वलय है। यह
शस्य-श्यामला धरती तुम्हारी ही कृपा दृष्टि के सुफल से हरी-भरी है। यह हरी-भरी
बनी रहे ताकि पाँव में नृत्य और होंठों पर गीतों का श्रृंगार होता रहे।